राँची शहर। शाम का समय। यही कोई सात-आठ के बीच का। बाजार में, सड़कों पर,
फुटपाथों पर भीड़। बीच सड़क पर तेज रफ्तार से भागती-दौड़ती गाडियाँ। हार्न के
नाना किस्म के शोर। फुटपाथ एक दूसरे से रगड़ खाते, तेजी से आते-जाते लोग।
फुटपाथ के किनारे-किनारे लगे ठेले। उनमें बिकती हुई, फल-सब्जियाँ। खरीद-बिक्री
लगभग अपने चरम पर। शाम की पूरी गहमा-गहमी। एक जुलूसनुमा आलम।
इन सबके बीच आँखों की सीध में लगभग अपलक-सी देखती और लगातार आगे बढ़ती तेतरी।
उसकी चाल न धीमे न तेज। उसके बाएँ हाथ में एक कटार! दाएँ हाथ में एक नरमुंड!
मुंड के निचले हिस्से से रिसता खून! पीछे खून की बनती एक लकीर! उसे देखकर
अगल-बगल से हटते-छँटते लोग। भयभीत और भौंचक भीड़! उनके बीच बनते रास्ते पर आगे
बढती हुई तेतरी। चेहरा सपाट और भावहीन। जिस्म तना हुआ। उसके पीछे झुंड के
झुंड, खड़े के खड़े लोग। स्तब्ध! अवाक! उनकी आँखें फटीं की फटीं। मुँह खुला का
खुला। एक डरावना-सा दॄश्य! इन सबके प्रति निस्संग और लापरवाह तेतरी। लगातार
आगे बढ़ती हुयी। पहले फुटपाथ से निकलकर सड़क पर। सड़क क्रास करके एक चौड़ी गली
में। गली के खत्म होने पर एक छोटा-सा मैदान। उसकी एक ओर एक थाना। तेतरी सीधे
तमतमाती-सी एकदम से थाने के भीतर। थाने के बाहर एक छोटी सी भीड़। बाहर बेहद
शोर-गुल। जैसे लोग पहली बार इस तरह का भयानक दॄश्य देख रहे हों।
तेतरी पर नजर पड़ते ही उसकी हुलिया देख थाने में बैठे सारे सिपाही एकाएक उठकर
खडे हो गए। सभी भौंचक। हक्के-बक्के। केवल थानेदार ही बैठा रहा। वह भी यह दॄश्य
देखकर हैरान-परेशान। तेतरी ने सीधे जाकर थानेदार की मेज पर हाथ का नरमुंड रख
दिया। उसकी बगल में कटार। एक ओर हटकर खड़ी हो गई। उसकी आँखों में कोई भय नहीं।
जैसे कोई भाव ही नहीं।
'कौन हो तुम?'थानेदार ने पूछा। स्वर में थोड़ी-सी घरघराहट-घबराहट।
'तेतरी।' उसने सपाट जवाब दिया।
'कहाँ से आई है?' थानेदार का स्वर रूखा था।
'गाम से।'
'अरे साली, गाँव का नाम तो बताओ।' इस बार थानेदार ने कड़क कर पूछा।
'इमली गाम से।' उसने बिना घबराहट के जवाब दिया।
'ये सब क्या है!' थानेदार ने तिरछी नजर से नरमुंड और कटार को देखते हुए पूछा।
चेहरे पर घृणा और क्षोभ।
तेतरी तुरंत कुछ नहीं बोली।
'अरे हरामजादी बोलती क्यों नहीं।' इस बार थानेदार कुछ गरजा।
'बोलती है कि नहीं!' इस बार एक सिपाही ने जरा ताव में कहा।
'हम इसको मार दिया! इसका गरदन ई कटार से काट दिया!'
'क्या लगता है ये तेरा?' दूसरे सिपाही ने पूछा।
'ये मेरा मरद का सिर है।'
'क्यों काटा इसका गरदन?'
तेतरी चुप।
'साली बोलती क्यों नहीं!' थानेदार एकाएक उठ कर खड़ा हो गया। दो कदम तेतरी की ओर
तेजी से बढ़ गया। एक बार नफरत से मुंड और कटार की ओर गहरी नजर से देखकर ठिठक
गया। मुंड के निचले हिस्से से खून मेज पर भी फैल रहा था। कटार पर भी खून लगा
था।
'कुछ बोलेगी भी या कि डंडा...' तीसरा सिपाही इसके आगे कुछ बोलने को होकर भी
रुक गया।
'ये इसी का लायक था!' नरमुंड की ओर घृणा से देखते हुए तेतरी बोली। मुँह में भर
आए थूक को दरवाजे तक जाकर बाहर पिच से थूक आई। उसके बाहर निकलते ही बाहर की
भीड़ में खलबली! जरा हटती-सी, छँटती-सी भीड़। भीतर आकर वह फिर निर्विकार भाव से
अपनी जगह खड़ी हो गई। सारे सिपाही परस्पर बड़बड़ा रहे थे, लेकिन थाने की एकमात्र
महिला सिपाही मंगला चुप थी। तेतरी को देखते हुए और नरमुंड को घूरते हुए।
थानेदार और सिपाहियों की बातें सुनते हुए। ऐसा नजारा उसने भी पहली बार देखा
था। दो-एक बार ऐसी वारदातें सुनी जरूर थीं, लेकिन देख पहली बार देख रही थी।
उसे तेतरी के साहस पर ताज्जुब हो रहा था। वह खुद आदिवासी मूल की थी, इसलिए
तेतरी के आदिवासी होने को लेकर उसे कोई संदेह नहीं था। उसके अपने गाँव में ऐसी
कोई घटना कभी नहीं हुई थी।
'तुमको मालूम है कि तूने कितना बड़ा जुर्म किया है, हरामजादी सड़ेगी जिंदगी भर
जेल में नहीं तो फाँसी होगी, समझी!' थानेदार ने चिल्लाकर कहा।
'हम तैयार है। मेरा मरद हमरे साथ जो किया, उसका सजा हम उसको दिया। तुमको जो
करना है करो। जेहल में डालो कि फंदा से लटका दो। हमको डर नहीं!' तेतरी की आवाज
में दृढ़ता थी। जैसे मरने-जीने से अब उसको कोई लेना-देना ही न हो।
'चलो, उठाओ ये कबाड़ यहाँ से!' थानेदार ने लगभग चीखकर कहा।
'हम नहीं हटाएगा!' तेतरी के स्वर में जिद थी, 'हमको जो करना था कर दिया। तुम
करो उसका जो करना है।'
'साली! हटाती है या नहीं... नहीं तो तेरी...' थानेदार तेतरी के करीब पहुँच कर
उस पर हाथ उठाने को हुआ, पर जाने क्या सोचकर मारा नहीं।
'हम उसको छुएगा भी नहीं! पाप लगेगा!'
'इतनी दूर लेकर आई तो पाप नहीं लगा हराम...।'
'हम बोला न कि हम नहीं छुएगा! तुमको दिखाने वास्ते लाया बस! तुमको हटाना है तो
हटाओ!' तेतरी ने कहा। उसके स्वर में डर-भय नहीं था।
'ये साली, ऐसे नहीं मानेगी। इसकी खासी कुटम्मस करनी होगी। खाल उतारनी होगी तब
यह... इससे तो बाद में निपटूँगा। ...अबे सुन, थानेदार ने एक सिपाही की ओर मुँह
करके कहा, 'पीछे जो कूड़ादान पड़ा है, पहले उसमें ये सिर डाल के आ। उठा। अबे
देखता क्या है! कहा न उठा!' थानेदर ने लगभग चीखते हुए कहा।
सारे सिपाही इस चीख से सावधान-से हो गए। इसका असर नहीं पड़ तो मंगला पर। वह
अपनी जगह खड़ी रही। न जरा हिली, न डुली। उसका ध्यान, सिर्फ और सिर्फ तेतरी पर।
उसके साहस पर। उसकी निडरता पर। इस पूरे कांड को लेकर उसकी अविचलता पर। उसकी
दृढ़ता पर। उसकी आँखों में तेतरी के लिए कुछ ताज्जुब का भाव। कुछ प्रच्छ्न्न
सराहना का भाव भी। पर दूसरों के सामने अप्रकट। मंगला के दिल-दिमाग में एकाएक
तेतरी को लेकर कई सवाल। सवालों का एक बवंडर। भीतर एक अंधड़ की-सी स्थिति। न
थमते बने न थामते।
जिस सिपाही को आदेश मिला था, उसने आगे बढ़कर नरमुंड को उसके सिर के बालों से
पकड़ा और अपने शरीर से दो फुट की दूरी पर रखते हुए कूड़ेदान की ओर की ओर बढ़ा,
लेकिन घृणा और वितृष्णा से तेतरी की ओर घूरते हुए। जैसे उसका बस चले तो उस
नरमुंड से ही तेतरी पर एक जबरदस्त वार कर उसे छलनी कर डाले। तेतरी उसकी ओर
नहीं देख रही थी। वह तो जैसे किसी शून्य में देख रही थी। अपने भीतर बंद-सी।
पता नहीं कि वह उस क्षण वहीं थी या कहीं और या कहीं भी नहीं।
'सुन बे, थानेदार ने दूसरे सिपाही से कहा, 'बाहर जो भीड़ लगी है, उसे भगाओ। न
माने तो डंडा करो, समझे!'
दूसरा सिपाही बिना कुछ बोले चुपचाप कोने में रखा डंडा हाथ में लेकर बाहर
निकला। भीड़ को खदेड़ने की आवाज भीतर भी आ रही थी।
'अरी सुन मंगला, इसे पहले भीतर बंद करो, सिपाहियों को आदेश देने वाला कड़क
स्वर इस बार कुछ नरम था, और आज रात तुम यहीं ड्यूटी करो'। हम रात को आकर इसका
मामला देखेंगे। इसकी अकड़ निकालनी होगी, साली बहुत अकड़ दिखा रही है।'
'हम अपना घर नहीं जाएगा क्या!' मंगला के स्वर में साफ नकार था।
'घर कैसे जाएगी, इसको कौन सँभालेगा?' थानेदार के स्वर में तुर्शी आ गई, उसे
कुछ मुलायम बनाने की कोशिश करते हुए बोला, 'तुम्हारा खाना यहीं आ जाएगा। तुम
इस पर नजर रखे रहना। ये बहुत टेढ़ी औरत मालूम पड़ती है।'
मंगला कुछ नहीं बोली। वह समझ रही थी कि थानेदार का रात को आने का मकसद क्या
है। उसके चेहरे पर नफरत फैली, जिसे बलात छिपाती-सी वह तेतरी को देखने लगी।
उसके प्रति अब भी कौतूहल मन में उमड़-घुमड़ रहा था। यों भी वह थानेदार के कहने
का जोरदार विरोध करने की स्थिति में नहीं थी। मामला हाजत में औरत का था और इस
थाने में वही अकेली महिला सिपाही थी।
'अबे सुन, थानेदार ने तीसरे सिपाही से कहा, 'मंगला के लिए सामने वाले होटल से
खाना ले आ'। जल्दी। वहाँ खुद मुफ्त का कुछ खाने-पीने मत बैठ जाना, समझे।'
'जी हजूर!' कहते हुए वह मुस्तैदी से बाहर निकल गया।
'और ई का खाएगी?' मंगला ने बिना थानेदार की ओर देखे कहा। उसकी नजरें अब भी
तेतरी पर। कुछ सोचते हुए... जाने इसके साथ रात कैसे बीतेगी। लेकिन इसे जानने
का मौका भी तो तभी मिलेगा।
'इसकी फिकर तू मत कर। इसको भूख होगी कहाँ। यह तो अपने भतार का खून पीकर आई
है।'
मंगला चुप ही रही।
'हम घर जा रहे हैं, बाहर तुम पहरा देगा, थानेदार ने चौथे सिपाही से कहा, हम
बीच रात आकर हालचाल लेंगे, समझे।' थानेदार के स्वर में धमकी थी, जिसका मतलब
सिपाही अच्छी तरह समझ गया था। मतलब यही कि पहरा थाने के बाहर ही देना था। भीतर
झाँकने तक की गु्स्ताखी नहीं करनी थी। किसी को हाथ लगाने की बात तो दूर की,
वर्ना...। इससे आगे सोचने की सिपाही की हिम्मत भी नहीं थी। उसने बिना कुछ कहे
सावधान की मुद्रा में आकर थानेदार को सलामी दी।
'मंगला तुम इस जल्लाद औरत के साथ रात को अंदर ही रहेगी। सावधान रहना, इसका कोई
भरोसा नहीं है। हम रात को आकर इसको सबक सिखाएँगे। पहले तुम इसको ले जाकर हाजत
में बंद करो। कुछ उल्टा-सीधा करे तो बेरहमी से डंडा करना, समझी!'
मंगला का शरीर एकाएक तन गया। चेहरा तमतमा गया। वह वाकई समझ गई थी कि रात को
आने और सबक सिखाने का मतलब क्या है। मंगला ने तेतरी का हाथ कुछ आगे बढ़कर थाम
लिया। कोई और होता तो शायद उसकी शामत आती, लेकिन मंगला की पकड़ में कुछ ऐसा था
कि तेतरी ने न अपना हाथ छुड़ाया, न झटका और न ही कोई विरोध किया। उसके साथ भीतर
चुपचाप चली आई। मंगला ने उसे हाजत में बंद किया और बाहर से ताला लगा दिया।
हालाँकि उसे भीतर से लग रहा था कि इसकी कोई जरूरत नहीं है... फिर भी। ...हरामी
थानेदार चाभी माँगे तो...।
इस दौरान न मंगला ने कुछ पूछा, न तेतरी ने कुछ कहा। वह कोठरी के भीतर होते ही
कटी डाल की तरह फर्श पर गिर-सी गई। उसे हल्का चक्कर-सा आ रहा था। इतनी देर तक
तने रहने के बाद उसका जिस्म जैसे एकदम से ढीली और निढाल हो चला था। काफी रात
हो रही थी। मंगला का खाना आ गया। उसने भीतर से दरवाजा भेड़ दिया। बाहर पहरा दे
रहे सिपाही को छोड़कर, शेष सारे सिपाही, थानेदार सहित, कुछ दूर पर बने
अपने-अपने क्वार्टरों की ओर चले गए।
मंगला कुछ देर बैठी तेतरी की ओर देखती रही। वह उसकी हालत समझ सकती थी, लेकिन
उससे अकेले खाया भी नहीं जाता। हालाँकि तेतरी शायद कुछ खाने की स्थिति में थी
भी नहीं। फिर भी... मंगला कभी सामने पड़े खाने को कभी भीतर पड़ी तेतरी को असमंजस
में देखती रही, फिर अचानक एक फैसला किया और सीखचों के पास आकर पुकारा,
'अरे सुन!'
तेतरी न हिली न डुली।
'सुनती है...' मंगला ने कुछ ऊँचे स्वर में कहा।
तेतरी के शरीर में थोड़ी हरकत हुई।
'तेतरी!' इस बार उसने नाम लेकर पुकारा।
तेतरी को बेहोशी की-सी हालत में लगा, कोई उसे पुकार रहा है। माँ... या
बहन...या... आवाज जैसे दूर से आई, लेकिन जानी-पहचानी-सी। वह उठकर बैठ गई।
आँखें फाड़े देखती रही। कुछ नींद, नीम बेहोशी की हालत में... जैसे समझने की
कोशिश में कि वह कहाँ है... क्यों है...
सीखचों के इस पार से मंगला बोली, 'हम बुला रहे हैं।'
तेतरी को जैसे होश आया। समझ में भी कि वह कहाँ है, क्यों है।
'पानी...!' वह इतना ही बोल पाई। उसका स्वर धीमा था। जैसे कुछ बुदबुदा रही हो।
मंगला समझ नहीं पाई। इस बात का एहसास शायद तेतरी को भी हुआ।
'दीदी पानी!' इस बार वह जरा जोर से बोली।
मंगला का ध्यान 'दीदी' शब्द पर अटक गया। इस थाने में कई बार कभी कसूरवार तो
कभी बेकसूर महिलाएँ बंद हुईं, लेकिन आज तक किसी ने उसे 'दीदी' नहीं कहा। वह
भीतर से पिघलने लगी। दीदी तो उसे उसका वह छोटा भाई कहता था, एकमात्र भाई, जिसे
नक्सलाइट घोषित कर पुलिस ने बेरहमी से मार डाला था। गोलियों से उसे छ्लनी कर
दिया था। मंगला की आँखों में आँसू छलके। जब कि असली नक्सल बाहर ही था। उसे हाथ
लगाने की हिम्मत पुलिस को नहीं थी। पुलिस उससे डरती, भागती थी। दीदी तो उसका
भाई तब कहता था, जब उसे भूख लगती थी, नींद आती थी। सुना कि जंगल में ले जाकर
जब पुलिस ने उसे और उसके एक साथी को गोलियों से भून डाला, तब भी उसके मुँह से
अंतिम शब्द वही निकला था, 'दीदी'! मंगला की आँखों में तिरते आँसू बह निकले।
शायद तेतरी उन्हें देख भी नहीं पाई। मंगला तेतरी को पानी देने घड़े के पास आई।
अल्युमुनियम के गिलास में घड़े से पानी लेकर तेतरी की ओर बढ़ाया। उसे वह एक साँस
में पी गई।
'दीदी थोड़ा और...' मंगला ने उसे चार गिलास पानी पिलाया। तब जाकर वह कुछ
सुस्थिर हो पाई। तेतरी ने उसे एहसान की नजरों से देखा। कुछ बोलना चाहकर भी बोल
नहीं पाई।
शायद शब्द जु्टा नहीं सकी।
मंगला ने खाने की प्लेट सीखचों के करीब कर कहा, 'लो, कुछ खा लो।'
'नहीं दीदी, भूख नहीं है।'
'नहीं होने पर भी थोड़ा खा लो।'
'दीदी...' तेतरी कुछ बोलने को हुई।
'दीदी कहती हो न, तो बात मानो।' मंगला के स्वर में आग्रह था।
'दीदी आपका खाना...'
'दोनों मिलकर खा लेंगे। कम नहीं है। आओ...।' दोनों आमने-सामने बैठ गईं। एक ही
प्लेट से खाने लगीं। तेतरी के मन में अब भी संकोच था। खाते हुए कुछ देर दोनों
मौन रहीं।
'क्यों मारा अपने आदमी को?'मंगला ने पूछा।
'वो आदमी नहीं कसाई था दीदी!' तेतरी बोली। उसके मुँह में जैसे कोई बहुत कसैला
स्वाद घुल गया। थूक फिर मुँह में भर गया। उसने हाजत की दीवार पर थूक दिया। वह
कड़ुवा स्वाद न वह मुँह में रख सकती थी और न निगल सकती थी। उसे थूकना उसकी
मजबूरी थी। मंगला ने इस पर कोई प्रतिक्रिया नहीं व्यक्त की, बल्कि उसे अनदेखा
किया।
'क्या किया था उसने?'
'हमको बेच दिया था दीदी!'
'कहाँ बेचा, किसको?'
'बहुत साल पहले का बात है दीदी...' तेतरी रुक गई।
'घबराओ नहीं तेतरी। उस हरामी थानेदार को हम कुछ नहीं बताएँगे।'
'दीदी! मेरा आदमी का नाम केसरी था...' तेतरी ने खाना रोककर बताना शुरू किया।
'खाते हुए बोलो, जल्दी नहीं है। अभी उस सुअर को आने में देरी है। पर वो आएगा
जरूर। ...तुम्हारा सादी उसके साथ हुआ था?'
'नहीं दीदी! ठीक ठीक सादी जैसा कभी नहीं हुआ...'
'तुम उसको प्यार करती थी न?'
'हाँ दीदी, पहले वो अच्छा आदमी था। एक ईंटा भट्टी में काम करता था। हम भी पहले
वहीं काम करता था। एक दिन बोला, 'तेतरी हम तुमको प्यार करता है, तुमसे सादी
करेगा।'
हम उसका बात में आ गिया दीदी। भट्टी का ठेकादार का नजर हम पर था। हमारा साथ
मौज करने के लिए वो केसरी को खूब दारू पिलाने लगा। उसका खुसामद करने लगा। दारू
का चक्कर में एक रात केसरी हमको उसका पास जाने के लिए बोला। हम सब समझ गिया और
काम छोड़ दिया।'
'तब तुम भी केसरी को चाहनी लगी थी न?'
'हाँ दीदी! पर हम नहीं जानता था कि दारू पिला-पिला के ठेकेदार उसका मति मार
देगा और वो एक दिन उसको औरत पहुँचाने वाला दलाल बना देगा।'
'तुमने उसको कभी मना नहीं किया?'
'किया दीदी, बहुत बार किया। हमरे सामने बहुत कसम खाता था कि वह ईंटा भट्टी में
काम छोड़ देगा। हमारे बहुत बोलने पर छोड़ भी दिया दीदी। हम उसको साफ बोला कि तुम
जब तक उस औरतबाज ठेकेदार का काम छोड़ कर दूसरा काम नहीं पकड़ेगा, तब तक हम तुमसे
सादी नहीं करेगा। '
'क्या सचमुच वो काम छोड़ कर रास्ता पर आ गया?' मंगला को जानने की उत्सुकता हुई।
'नहीं दीदी! वो और भी खराब रास्ता पकड़ लिया।'
'कैसे?'
'हम सोचा कि ठेकेदार का काम छोड़ दिया तो साथ का साथ दलाली भी छूट गिया होगा,
पर दीदी, वो तो अब पूरा दलाली का धंधा में उतर गिया था।'
'तुमको ये पहले नहीं मालूम पड़ा होगा?'
'माँ का कसम खाके बोलता है दीदी। नहीं मालूम हुआ, नहीं तो मेरा आज ये हालत
नहीं होता।'
'फिर क्या हुआ?'
'एक दिन का बात है दीदी। हमारे पास आके बहुत प्यार से बोला' ...तेतरी की आँखों
में उस मनहूस दिन की घटना उतर आई... 'उस दिन सचमुच केसरी काफी बदला-बदला-सा लग
रहा था। जैसा कि पहले वह हुआ करता था। उसने दारू भी नहीं पी रखी थी। उसके
चेहरे पर कुछ पश्चाताप का-सा भाव था। तेतरी को उस पर दया आई। प्यार उमड़ा,
लेकिन उसने खुद को भीतर से जब्त किया। वह इतनी जल्दी पिघलना नहीं चाहती थी। वह
मौन रही। शांत रही। देखना चाहती थी कि क्या बोलने आया है। बहुत दिनों के बाद
आया था।
'तेती हमको माफ करो'। हम भटक गिया था। हम वो हरामी ठेकेदार का बात में आ गिया
था। हमको दारू पिला के औरत जुटाने का काम में लगा दिया था। हम उसका पास काम
छोड़ा, फिर दारू छोड़ा, फिर औरत वाला काम भी छोड़ दिया। तुम बिस्वास करो तेती। हम
तुमारा कसम खाके बोलता है। हम तुमसे सादी करके अच्छा जिनगी चाहता है। तुम
हमारा साथ दो तेती। अब हमारा जिनगी तुमारा हाथ में है। हम हाथ जोड़ता है।
तुमारा पैर पड़ता है।'
वह सचमुच रोने लगा। उसने हाथ जोड़े और पैर पर झुक गया। तेतरी ने उसे झुककर
उठाया। वह प्यार से तेतरी को तेती बोलता था। यह सुनना तेतरी को बहुत अच्छा भी
लगता था। जाने क्यों उसके इस बदले स्वभाव ने तेतरी को भीतर से कुछ पिघला दिया
और उसकी आँखों से आँसू बहने लगे। केसरी को लेकर उसके भीतर जो भी मलाल था, वह
धुलने और घुलने लगा। उस शाम तेतरी ने उसे प्यार से बिठाया। खाना खिलाया। उस
रात केसरी के प्यार में वह रात भर बहती रही। डूबती-उतराती रही। उस रात भगवान
सिंगबोंगा को मन ही मन साक्षी मानकर तेतरी ने उसे अपने पति के रूप में स्वीकार
कर लिया।
एक दिन वह कुछ हल्के नशे में आया। तेतरी समझ गई, लेकिन वह कसम खाता रहा कि
उसने नहीं पी है। तेतरी ने कोई विवाद नहीं किया।
'तेती, हम एक बात बोलता है, सुनो।'
'क्या बात?' तेतरी ने पूछा।
'यहाँ कोई अच्छा काम-धंधा नहीं है।'
'तो?'
'हम दिल्ली जाएँगे।' वह बोला।
'दिल्ली!' तेतरी चौंकी।
'हाँ, दिल्ली।'
'वहाँ कौन काम देगा हम लोगों को?'
'मेरा एक पचान का आदमी है। वो बोलता है कि दिल्ली में मजूरी का काम बहुत मिलता
है। उसका जान-पचान का लोग है। जो हियाँ से दिल्ली जाता है, उसको काम दिलाने का
काम एक दफ्तर करता है। हमको उस पर पूरा भरोसा है। वहाँ हमको कोई भी छोटा-मोटा
कारखाना में मजूर का काम जरूर मिल जाएगा और तुमको भी किसी का घर में काम मिल
जाएगा। '
'लेकिन हम वहाँ काम खोजेगा कहाँ?'
'खोजना नहीं पड़ेगा तेती। हियाँ का आदमी हमको एक चिठी देगा। वो लेके हम दिल्ली
में दफ्तर का मलिक से मिलेगा। उसके पास काम का कोनो कमी नहीं रहता है। हियाँ
से जितना भी औरत और मर्द वहाँ गिया, सबको काम-काज मिल गया और वहाँ पैसा भी
हियाँ से बहुत जादा मिलता है। बहुत आराम का जिनगी है वहाँ तेती। हमारी बात मान
चल दिल्ली।'
तेतरी सोच में पड़ गई। उसने भी सुन रखा था कि दिल्ली में झारखंड से जाने वालों
को अच्छा काम और अच्छा पैसा मिलता है। उसके गाँव की भी कुछ लड़कियाँ-औरतें वहाँ
अच्छे-अच्छे घरों में काम करती हैं और बहुत मौज की जिंदगी जीती हैं। जब परब
में गाँव आती हैं, तो उनका ठाठ देखते बनता है। उसने कभी ऐसी बात भले ही न सोची
हो, लेकिन केसरी के कहने से उसके मन में भी थोड़ी इच्छा जग गई। थोड़ा लोभ भी। कल
को उनके बाल-बच्चे होंगे। परिवार बढ़ेगा। खर्चा बढ़ेगा। तब घर कैसे चलेगा। यहाँ
तो काम के लाले हैं।
ले-देकर वही रेजा-कुली काम। उसमें गुजारा होगा कैसे। बात तो केसरी ठीक ही कह
रहा है।
'दिल्ली जाने का खर्चा कहाँ से आएगा?' उसने पूछा।
'खर्चा वो लोग देगा। जब हम काम करने लगेगा और पैसा मिलने लगेगा तो थोड़ा-थोड़ा
करके हमारा पगार से काटेगा।'
'पगार से पैसा काट लेगा तो हम कैसे रहेंगे, क्या खाएँगे?'
'देखो तेती, 'केसरी ने समझाया, 'हम मजूरी करेगा तो दूसरा मजदूर लोग का साथ में
रहेगा और तुम जिसका घर में काम करेगा, वहीं तुमको रहना-खाना, कपड़ा-लत्ता सब
मिलेगा।'
'तो क्या हमको अलग-अलग रहना पड़ेगा, तब जाके क्या फायदा!' तेतरी का स्वर कुछ
तेज हो गया।
'अरे पगली, ये सब तो कुछ दिन के लिए। बाद में हमारा अच्छा कमाई होने लगेगा तो
हम साथ रहेगा। सिंगबोंगा की किरपा से वहाँ हम एक दिन अपना घर बनाएगा। उसको
बसाएगा। हमारा बालबचा अच्छा इस्कूल में पढ़ेगा। लायक बनेगा। हमारा सब दुख
दलिद्दर दूर होगा...।'
केसरी और भी कुछ-कुछ बोलता रहा। तेतरी आँखें मूँदे सुनती रही। किन्हीं सपनों
में खोती रही।
...तेतरी हाजत में भी खोई रही। मंगला कुछ देर इंतजार करती रही।
'फिर क्या हुआ... तेतरी... तेतरी!'
'हाँ दीदी!', वह कुछ चौंकी। अपने अतीत से लौटी। कुछ देर के मौन के बाद बोली,
'हमसे बहुत बड़ा गलती हो गिया था दीदी...।'
'क्यों क्या हुआ उसका बाद। दिल्ली गया कि नहीं?'
'गिया दीदी, उसका बाद ही हमरा जिनगी खराब हो गिया।' तेतरी के स्वर में गहरी
पीड़ा उतर आई।
उसकी आँखों में आँसू घिर आए। उसका स्वर भर्रा गया।
'जो आदमी को केसरी भरोसा का बताया था, वह हरामी निकला। केसरी भी उसका साथ मिला
हुआ था। हमको ये सब पहले नहीं मालूम हुआ। केसरी हमसे झूठ बोला था दीदी।'
उसका वो आदमी दलाल था। उसका साथ रहते-रहते केसरी भी दलाली सीख गया था। वो लोग
हमको बेचने का वास्ते दिल्ली ले गया था।'
'क्या बोलती हो, बेचने के लिए!' मंगला एकाएक चौंकी।
'हाँ दीदी!'
'वो आदमी तुम लोग का साथ गया था?'
'हाँ, दोनों मिल के ही ये पलान बनाया था।'
'ये बात तुमको कब पता चला?'
'जब हम दिल्ली पहुँच गिया तब। एगो दफ्तर में हमको ले गिया। वहाँ का मनेजर से
इन लोगों का भीतर का कमरा में गुपचुप बात हुआ, फिर ये बोल के कि हम थोड़ा देरी
में आता दोनों जल्दी से निकल गिया। हमको कुछ बोलने का मौका भी नहीं दिया।
मनेजर बार-बार हमको घूरता रहा। हम बहुत घबरा रहा था दीदी! हमको डर लग रहा था।
वहाँ से उठके बाहर भाग जाने का मन हो रहा था। साम हो गिया। रात हो गिया। वो
लोग लौट के नहीं आया। तभी हमको सक हो गिया था दीदी कि कुछ गड़बड़ जरूर है। हम
दिन भर भूखा-पियासा वहीं बैठा रहा। वो आदमी हमको घूरता रहा और दारू पीता रहा।
जब उसको नशा हो गिया तो हमको बोला, 'भीतर चलो, हम तुमको काम बताएगा।'
'क्या काम?'
'यही कि किसके घर में काम करना है, क्या काम करना है। उसका जबान लड़खड़ा रहा
था।'
'जो बोलना है यहीं बोलो...! हम डरते-डरते बोला।'
'अरे हरामजादी यहाँ काम करने आई है या जबान लड़ाने...!' वो एकदम से उठा और हमरी
तरफ बढ़ गिया। बिना कुछ बोले हमारा बाल पकड़कर हमको लात मारते हुए दूसरा कमरा
में घसीटते ले गया। उस बखत वो साछात राछस लग रहा था। हम बहुत हाथ-पैर फेंका,
बहुत छ्टपट किया। उसको दाँत से काट लिया। उसका ऊपर लात-घूँसा भी चलाया, पर हम
तो मन से पहले से ही डर गिया था, उस राछस के सामने हम कमजोर पड़ गया। वो आधा
रात तक हमको नोच-खसोट करता रहा, फिर हम बेहोश हो गिया। हमको बुखार आ गिया। चार
दिन तक हमको उसी कमरा में बंद रखा। बुखार का हालत में भी हमारा साथ कुकरम करता
रहा...।'
तेतरी के आँसू बहने लगे। वह रोने लगी। मंगला सीखचों के बाहर से ही उसके कंधे
पर हाथ रखकर उसे सांत्वना देती रही।
'केसरी तो आया नहीं होगा?'
'नहीं दीदी, उसका कुछ अता-पता नहीं लगा, तेतरी ने खुद को सँभालते हुए कहा, 'उस
राछस से ही चार दिन में हमको पता चला कि उसका हाथ में हमको बेच के दोनों भाग
गिया। उसका बाद तो दो साल तक हम उसका चेहरा भी नहीं देखा।'
'फिर तुमको कोई काम में लगाया कि नहीं? मंगला ने जानना चाहा।
'उसका बाद तो हमरा जिनगी और नरक हो गिया दीदी!'
'कैसे?'
...तेतरी फिर उस दिन की याद में खो-सी गई... चार दिन बाद एक थोड़ा भला दिखने
वाला आदमी उसके पास आया था। दोनों में क्या बात हुई यह तेतरी को पता नहीं लगा,
लेकिन दफ्तर के आदमी ने तेतरी को उसके साथ जाने को कहा। तेतरी को लगा कि उसे
कम से कम उस नरक से छुटकारा मिलेगा, इसलिए उसने विरोध नहीं किया। चुप्पी साध
लेना ही उसे ठीक लगा। वह नया आदमी उसे अपने घर ले गया। थोड़ी देर बाद वह बोला,
'तुम्हारा नाम क्या है?'
'तेतरी।'
'देखो तेतरी, अब तुम फँस गया है।'
'मतलब?' तेतरी ने हिम्मत करके पूछा।
'मतलब ये कि यहाँ देश का जितना भी लड़की-औरत को लाया जाता है, उसे किसी न किसी
धंधे में लगा दिया जाता है।'
'क्या धंधा?' हम पूछा। बातचीत में वो नया आदमी थोड़ा ठीक ठाक मालूम हुआ'।
'किसी को दलाली में लगा दिया जाता है, किसी को रंडी बनाने के लिए किसी चकला या
कोठी में भेज दिया जाता है। किसी को किसी का घर में काम-काज के लिए लगा दिया
जाता है। किसी को फिर किसी और के हाथ बेच दिया जाता है। और भी बहुत कुछ
है...।'
'हमको कितना में बेचा है?'
'नहीं मालूम है। इस धंधे में कोई किसी को कुछ नहीं बताता है।'
'क्या तुम उससे हमको दुबारा खरीद के लाया है?'
'नहीं, हमको कहा गया है कि तुमको किसी धंधा में लगा दें'। मेरा यही काम है।
बोलो तुम क्या करना चाहती है?'
'हम अपना गाम और घर जाना चाहती है।'
'यह नहीं हो सकता है'। यहाँ आने या लाने के रास्ते बहुत हैं, लेकिन जाने का
कोई रास्ता नहीं है। कोई कोशिश करे तो उसे किसी रंडी कोठी में बंद कर दिया
जाता है या मार दिया जाता है।'
'हम कोई अच्छा घर में काम करेगा।' थोड़ा सोच के तेतरी बोली।
'ठीक है, हमारे पास दो-चार अच्छा घर है, लेकिन तुम जितना अच्छा घर में काम
चाहता है...' वह रुका और तेतरी को नजर मिला के देखने लगा।
वह चुप रही ।
'जितना अच्छा घर चाहता है, हमको उतना ही खुश भी करना होगा।'
'मतलब?'
'मतलब तुमको पहले हमारे साथ रहना होगा। कुछ दिन। बिस्तर पर साथ देना होगा। इसी
बीच हम तुमको ले जाकर कुछ अच्छा घर दिखाएगा। जो घर तुमको पसंद आएगा, फिर तुमको
वहीं रहना होगा।'
...तेतरी चुप हो गई। फिर एक बार हाथों में मुँह छिपाकर वह रोने लगी। मंगला ने
उसे रोने दिया। यह सोचकर कि कुछ तो उसका दुख हल्का होगा।
'वो भी पहले आदमी जैसा ही था दीदी। सब आदमी एक जैसा होता है। उसको बस औरत का
मांस का सुवाद चाहिए। वो बच्चा हो कि जवान, औरत हो कि बुढ़िया, उसको कोई फरक
नहीं पड़ता है।'
'तुमको कोई काम में लगाया कि नहीं?'
'लगाया दीदी। कुछ दिन का बाद। तब तक रात भर हमसे वही सब करता रहा। हम उसका
सामने भी बहुत हाथ पैर फेंका, उसको लप्पड़ झप्पड़ भी किया, लेकिन दारू पीके वो
भी पहले वाला आदमी ही बन जाता था। हमको कुछ घर में ले के भी गिया। एक घर हमको
अच्छा लगा। हम बोला वो घर में काम दिला दो। वो बोला, कल हमको वहाँ छोड़ देगा।
दिन में उसका व्यवहार ठीक रहता था। रात में दारू पीके वो पगला जाता था। मेरा
मना करने, लड़ने झगड़ने से वो और भी जालिम हो जाता था।'
तेतरी फिर चुप हो गई, जैसे यह सब याद करने में भी उसको यातना हो रही हो।
'जो दिन हमको एक घर में छोड़ा, उसका पहले रात अपना एक दोस्त को भी बुला लिया।
क्या बोले दीदी, वो रात कैसे बीता।'
'क्या हुआ था उस रात?'
...तेतरी के सामने वह काली रात फिर से कौंध गई। वह उसके जीवन की एक भयानक रात
थी... उस रात दोनों दारू पीके नशा में झूमते हुए तेतरी के साथ जिस्म का खेल
खेलने उसके पास आ गए थे। उस रात तेतरी बहुत गुस्से में आ गई थी! यह साला अपने
तो कुकरम करता था, साथ में एक और को ले आया! वह बिफर उठी! उसके दिमाग में जैसे
कोई शैतान घुस गया था। जब वो लोग उसकी ओर बढ़े, उसने पूरी ताकत लगा के उसके साथ
वाले आदमी की छाती पर लात मारी! तेतरी भी समझ नहीं पाई कि उसमें इतनी ताकत
कहाँ से आ गई। वह जोर से गिरा पीछे की ओर गिरा। अपनी छाती पकड़ के चिल्लाते हुए
वहाँ से भाग गया! फिर लौट के नहीं आया। शायद वह बहुत डर गया था।
उसके बाद उसे काम दिलाने वाले आदमी ने एकदम से किसी जंगली सूअर की तरह तेतरी
को दबोच लिया, लेकिन उस रात शायद सिंगबोंगा उसके साथ था। उसने उस आदमी का एक
हाथ पकड़ के पूरी ताकत लगाके मोड़-मरोड़ दिया! शायद उसका हाथ टूट गया था, वह
तेतरी को छोड़ कर अपना हाथ थामे दूसरे कमरे में चला गया। रात भर हाय हाय करता
रहा, फिर सुबह बिना कुछ बोले चुपचाप उसे ले जाकर उस घर में छोड़ आया...।
तेतरी चुप थी।
'बहुत अच्छा किया कि तुमने दोनों को सबक सिखाया। वो घर का लोग कैसा था?'
'पहले तो हमसे अच्छा व्यवहार बातचीत किया, लेकिन बाद में वो घरवाली बहुत
किचकिच करने लगी। बाद-बाद में गाली भी देने लगी। हम भी क्या करता दीदी। कहाँ
जाता। किसके पास जाता। हम जी कड़ा करके काम करता रहा। वो घर वाला पहले हमको
अच्छा लगा। वो हमसे ठीक बातचीत करता था। हमको बेटी बोलके बुलाता था।'
'चलो कम से कम एक तो भला आदमी मिला।'
'क्या बोले दीदी, वो तो और भी खराब आदमी निकला। कभी कभी उसका देखने का नजर
हमको खराब लगता था, लेकिन वो भी हम सह लेता था। उसका घर में हम बहुत महीना काम
किया। एक बार घरवाली अपना माँ का घर गिया था। घरवाला अकेला था। उसका बीबी का
जाने का दूसरा दिन हमको पकड़ लिया। लगा जोर जबर करने। वो सीधा हमको पटक के हमरे
ऊपर गिर गया। हमरा ऊपर तो जैसे भूत परेत आ गिया। हम उसको इतना जोर का धक्का
मारा कि वो लुढ़क के गिरा और जाने कहाँ टकरा के उसका सिर फट गिया। वो चीखने
चिल्लाने लगा। उसका सिर से खून खून बहने लगा। हम बहुत डर गिया। मेरा हाथ पैर
काँपने लगा! छाती में धक धक बहुत बढ़ गिया! हम फिर वो घर में एक मिनट भी नहीं
रुका दीदी। अपना कपड़ा लत्ता पैसा कौड़ी लेके सीधा पूछते-पूछ्ते दिल्ली सटेशन आ
गिया। दो दिन पलेटफारम में पड़ा रहा। फिर इधर आने वाला टरेन पकड़ के अपना देस आ
गिया। हम बहुत कस्ट भोगा दीदी। भगवान किसी को इतना कस्ट...।'
वह आगे बोल नहीं पाई और फूट फूट कर रोने लगी।' मंगला की आँखों से भी आँसू बह
निकले। वह तेतरी को इतना रोते देख विचलित हो गई और हाजत का ताला खोलकर भीतर आई
और तेतरी को अपनी बाहुओं में भर लिया। कुछ देर तक दोनों उसी तरह रहे। जैसे
बिछुड़ी हुई किस्मत के मारी दो बहनें सालों बाद मिली हों। कुछ सँभलीं तो मंगला
ने पूछा, 'केसरी से कब भेंट हुआ?'
'हमारा मन में उसको लेके बदला का आग जल रहा था। हमको मालूम हुआ कि वो राँची
सहर में बस गिया है। पैसा वाला बन गिया है। अपना दोस्त का साथ मिलके एक दफ्तर
बना लिया। धंधा वही था। झारखंड से औरत-लड़की ले जाके दिल्ली, कलकता, बंबे में
सपलाई करना। सुना कि इसमें सरकार का मंत्री, ओफीसर लोग का भी हाथ रहता है, तभी
उनका धंधा इतना चलता है।'
'ये तो बहुत गलत काम है, छी!' इस बार मंगला के मुँह में थूक भर गया। उसने पिच
से दीवार पर थूक दिया, जैसे पूरे धंधे और उससे जुड़े लोगों पर थूक रही हो।
'हम एक दिन सहर गिया। पूछते-पूछते उसका ठिकाना खोजा। सुबै से साम तक बाहर
बैठा। जब वो खाली और अकेला हुआ। हम एकदम से भीतर घुसा। भीतर छुपा के रखा कटार
निकाला। इसका पहले वो कुछ समझता, अपने को सँभालता, हम उसका पीछे जाके बाल पकड़ा
और उसका गरदन रेत दिया!'
उसके इस साहस की मंगला ने मन ही दाद दी। मंगला को चुप देख तेतरी ने पूछा,
'दीदी, हम तो अपना दुख तुमको सुनाया। तुम अपना बारे में कुछ नहीं बताया दीदी।'
'बताने को कुछ बचा नहीं है तेतरी। माँ बाप तभी मर गए जब हम और भाई छोटे थे।
दोनों हारी बीमारी से गलगल के मरे! न दवा न दारू। भाई को देखने के लिए हम ही
थे। उसका माँ कहो या बाप। एक दिन मालूम हुआ कि पुलिस ने उसको नक्सली कहकर मार
दिया। वो ये भी नहीं जानता था कि ये नक्सली क्या है, कौन है। हमारे बहुत बोलने
पर एक एन.जी.ओ. वालों ने पुलिस पर केस किया। केस बहुत लंबा चला। बाद में ये
पता लग गया कि झूठमूठ का एनकाउंटर में मारा था। उसके बाद हमको पुलिस में ये
काम दिया गया। अपना भाई को खोकर हम ये नौकरी पाए। हमको ये नौकरी नहीं मिलता,
हमारा भाई ही जिंदा रहता तो...' मंगला भी उसके बाद रोने लगी। इस बार तेतरी ने
उसे सँभाला।
मंगला को जैसे अचानक याद आया, 'ये थानेदार भी एक नंबर का हरामी है। जब भी हाजत
में कोई औरत बंद होता है, ये हमारा डिउटी लगाता है। रात को पीके आता है और
हमारे साथ और बंदी के साथ, वो ही सब करता है, जो तुम्हारे साथ दिल्ली में होता
था। अब आने वाला होगा...।' मंगला का वाक्य पूरा होने से पहली ही दरवाजे पर
दस्तक पड़ी और मंगला के नाम के पुकार सुनाई पड़ी।
'तुम चुपचाप कोने में पड़ी रहो जैसे कि तुमको कुछ मालूम नहीं है।' कहकर मंगला
दरवाजा खोलने मन मार कर उठी। उसने हाजत का ग्रिल नजदीक से लगा दिया। ताला नहीं
लगाया। दरवाजा खुलने पर नशे में धुत थानेदार भीतर आया। एक नजर बंद हाजत और एक
कोने में सोई सिकुड़ी तेतरी को देखा। वह एकदम से भूखे भेड़िए की तरह मंगला पर
झपट पड़ा। मंगला हाथ पैर पटकती रही, विरोध करती रही, पर थानेदार उस पर हमला
बोलता रहा। तेतरी को लगा कि एक बार फिर उसके साथ वही सब हो रहा है, जो बार-बार
दिल्ली के दरिंदों ने किया था। वह एकाएक एक झटके से उठी और हाजत का ग्रिल
खोलकर किसी विक्षिप्त की तरह बाहर आई और थानेदार पर हाथों पैरों से प्रहार
करने लगी! थानेदार इस अचानक हमले को सह नहीं पाया और बगल में लुढ़क गया! इस बीच
मंगला भी मौका पाकर उठ खड़ी हो गई। दोनों ने मिलकर थानेदार को इतना मारा कि वह
आधमरा हो गया! उसे अपने बचाव का एक भी मौका नहीं मिला। तेतरी के इशारा करने पर
दोनों ने उसे घसीटकर हाजत के अंदर डाल दिया! दोनों जैसे एक दूसरे का इरादा
जान-समझ कर थाने से उस आधी सुनसान रात को बाहर निकलीं। बेबात एक बार फिर गले
मिलीं। मंगला अपने घर की ओर चली गई और तेतरी जंगल की ओर दौड़ गई! जंगल आगे जाकर
बीहड़ बनता गया। वह उस बीहड़ के भीतर और भीतर भागती गई, धँसती गई। जाने वह कितनी
दूर और दूर तक दौड़ती ही रही, बदहवास। फिर बेदम होकर गिर पड़ी। बेहोश हो गई। जब
दूसरे दिन उसे होश आया तो उसने खुद को एक शिविर में पाया। घनघोर जंगल के बीच।
शिविर में उस समय कोई नहीं था। वह बिस्तर से उठ बैठी। नीचे उतरी। शिविर का
पर्दा हटाकर देखा। एक-सी पोशाकों में कई औरत-मर्द। तरह-तरह का अभ्यास करते
हुए।
कुछ के हाथों में बंदूकें। अब तक इनके बारे में कुछ-कुछ सुनती आई थी, पर
इन्हें साक्षात देख रही थी, पर वह न घबराई, न डरी, लेकिन उसके पैर कमजोरी से
लड़खड़ा रहे थे। रात भर भागने की थकान और तनाव अब भी था। वह भीतर आ गई। बिस्तर
पर फिर से लेटने के इरादे से, लेकिन उसकी नजर किनारे टिकाकर रखी गई बंदूक पर
पड़ी और उसके पैर अनायास उधर ही बढ़ गए। वह उसे छूने-सहलाने-सी लगी। उसने पहली
बार किसी बंदूक को इतने करीब से देखा था। उसकी इच्छा हुई कि वह उसे अपने हाथ
में लेकर देखे, लेकिन तभी पीछे से एक पुरुष स्वर सुनाई पड़ा,
'अब आपकी तबीयत कैसी है?'
तेतरी ने बंदूक पर से ध्यान हटाकर घूमकर देखने का प्रयास किया कि इतना अपना-सा
लगने वाला स्वर किसका है?